प्रारंभिक बालवाटिका के तीन वर्षों के स्थान पर गुरुकुलीय परम्परा युक्त शिक्षा का महत्व

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    भारतवर्ष के साथ कुछ वृहद उपलब्धी चिह्न अंकित हैं, जैसे अखंड भारत, विश्व गुरु भारत, स्वर्ण खग भारत आदि। उसी के उपलक्ष में जहाँ भारत की शिक्षा प्रणाली एवं पदत्ती की बात करें तो इसका मूल्यांकन करने से ध्यान में आता है, कि भारत में दी जाने वाली शिक्षा कितनी भारतीय मूल्य एवं विचारों पर आधारित है, और कितनी भारत से पूर्वाग्रहित पाश्चात्य विचारों का उसके भीतर समावेस है।
    कुछ लोगों का यह मत हों सकता है कि शिक्षा सार्वभौमिक धारना होती है इसमे क्या भारतीय और क्या पाश्चात्य। परन्तु यह पूर्ण तथ्य नही, क्यूकी शिक्षा का अर्थ सिर्फ उच्च पद-आसीन अफसर, वैज्ञानिक, या बैध बन जाने तक सिमित नही, अपितु शिक्षा का अर्थ है ज्ञान, कौशल, मूल्यों और अच्छे आचरण को प्राप्त करने की प्रक्रिया।
    वो प्रक्रिया का मूल सदैव से गुरुकुल रहे हैं, किसी भी शिक्षार्थी कि शिक्षा उसके प्रथम मौलिक मूल्य से होकर बौद्धिकता के उच्च स्तर तक जाती है।
    इसलिए छात्र छात्राओ के प्रारंभिक शिक्षा के तीन वर्षों में बालवाटिका 1(नर्सरी) , बालवाटिका 2 (एल. केजी) और बालवाटिका 3 (यू. केजी) के स्थान पर तीन वर्षों के लिए गुरुकुल पदत्ती अनुसार शिक्षा हों जहाँ कम से कम छात्र छात्राओं का उसके प्रारंभिक दिनों से ही भारतीय वेद पुराण और ग्रंथ के आधार पर एक उत्कृष्ट स्तर के बौद्धिकता का निर्माण हों सके। प्रारंभिक के तीन वर्ष गुरुकुल में पूर्ण होने के पश्चात वो विद्यार्थी और उनका परिवार स्वतंत्र हों किसी भी विद्यालय में दाखिला के लिए।
    वर्तमान में नई शिक्षा नीति के अंतर्गत कई बातें ध्यान में आई जैसे राज्यों अनुसार मातृभाषा में लिखने और सीखने पर वल दिया गया है जिसे अन्य भाषाओं के साथ साथ विद्यार्थी अपनी मातृभाषा को भी महत्व देगा, जिससे उसकी भाष्य संस्कृति जिवंत रह सके और उसके मातृभाषा में छिपे उसके वैज्ञानिक तत्व को अपने स्मरण में रख सके, चूकी हरेक मातृभाषा के शब्दों में छिपे रहते हैं विज्ञान के वो तत्व और संसार जिसे उसकी भाषा में ही समझा जा सकता है, अतः उस भाषा का अनुवाद करने पर भी वो गूढ रहस्य जस का तस नही होगा कुछ ना कुछ उसमे त्रुटी रहेगी ही इसलिए, जब जब छह पीढ़ी के बाद किसी कारण चाहे आधुनिकता का दिखावा हों, या कोई और कारण उस परिवार कि मातृभाषा का विलोप हुआ है तो उसमे उनके वैज्ञानिक और पौराणिक मूल्य का भी पतन हुआ है, जिसके कारण वो समाज जाने अंजाने दूसरे परिवेश के मूल्य और वैज्ञानिक परम्पराओं को अपनाने के लिए मजबूर हों जाता है और उसमे अपने आपको सहज महसूस नही कर पाता। जिसके कारण एक समाज एक संस्कृति और स्व विज्ञान के तत्वों से विहीन रह जता है। इसलिए मातृभाषा का महत्व बढ़ जाता है।
    इसलिए हरेक समाज को स्व का बोध होना अति आवश्यक है, यदि बोध है भी तो उसको बड़े स्तर पर प्रसार करने का विचार भी होना उतना ही आवश्यक है, जिससे कोई वंचित न रहे। विद्यार्थी के प्रारंभिक दिनों में यदि उसको ऐसा पर्यावरण उपलब्ध करा दिया जाए तो तीन वर्षों के नीव में ही उसके उत्तम गुण, राष्ट्र प्रेम की भावना, अपने शील और चरित्र का संरक्षण आगामी के वर्षों में वो स्वयं ही करने योग्य हों सकेगा।
    इसलिए यह एक चिंतन्य विषय है कि हम कैसी और कौनसी विचारों वाली युवा शक्ति को तैयार कर रहे है। जब तक भारत के मूल में भारतीयता का बोध नही होगा तब तक उसमे स्व का भाव आना दुर्लभ है। गुरुकुल परम्परा आज कि कोई नई अवधारणा नही बल्कि प्राचीन भारत के स्वरुप की आत्मा है। जहाँ धर्म का अर्थ कट्टरता से ना होकर कर्तव्यनिष्ठा से है, निज स्वार्थ से ना होकर निस्वार्थ से है, मै से ना होकर हम से है, तथाकथित आधुनिकता से ना होकर शुद्ध परिणाम वाले प्राचीन एवं नवीन शास्त्रार्थ से है।
    इसलिए इसका परिलोकन करना और इस विधा को अपने शिक्षा व्यवस्था का अंग बनाना आज कि आवश्यकता है।

    निशांत मिश्र—

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